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ए॒ते मृ॒ष्टा अम॑र्त्याः ससृ॒वांसो॒ न श॑श्रमुः । इय॑क्षन्तः प॒थो रज॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ete mṛṣṭā amartyāḥ sasṛvāṁso na śaśramuḥ | iyakṣantaḥ patho rajaḥ ||

पद पाठ

ए॒ते । मृ॒ष्टाः । अम॑र्त्याः । स॒सृ॒ऽवांसः॑ । न । श॒श्र॒मुः॒ । इय॑क्षन्तः । प॒थः । रजः॑ ॥ ९.२२.४

ऋग्वेद » मण्डल:9» सूक्त:22» मन्त्र:4 | अष्टक:6» अध्याय:8» वर्ग:12» मन्त्र:4 | मण्डल:9» अनुवाक:1» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मृष्टाः) भास्वररूप (अमर्त्याः) नक्षत्रगण (पथः रजः) रजोगुण से मार्ग को (इयक्षन्तः) प्राप्त होनेवाले (ससृवांसः) चलते हुए (न शश्रमुः) विश्राम को नहीं पाते ॥४॥
भावार्थभाषाः - यों तो संसार में दिव्यादिव्य अनेक प्रकार के नक्षत्र हैं, पर जो दिव्य नक्षत्र हों, उनकी ज्योति प्रतिपल सहस्त्रों मील चलती हुई भी अभी तक इस भूगोल के साथ स्पर्श नहीं करने पायी। तात्पर्य यह है कि इस दिव्यरचनारूप ब्रह्माण्डों की इयत्ता को पाना परमात्मा का काम ही है, खद्योतकल्प क्षुद्र जीव केवल इनकी रचना को कुछ-कुछ अनुभव करता है, सब नहीं। हाँ योगी जन जो परमात्मा के योग में रत हैं, वे लोग साधारण लोगों से परमात्मा की रचना को अधिक अनुभव करते हैं। इसी अभिप्राय से वेद में अन्यत्र भी यह कहा है कि ‘को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः’ १०।११।१३० कौन जान सकता है और कौन कह सकता है कि यह विविध प्रकार की सृष्टि परमात्मा ने कहाँ से और किस शक्ति से किस समय उत्पन्न की। इससे आगे यह निरूपण किया है कि इसका पूर्णरूप से ज्ञाता वह परमात्मा ही है, कोई अन्य नहीं। इसी अभिप्राय से ‘परिच्छिन्नं न सर्वोपादानम्’ सां० १।७६॥ इत्यादि सूत्रों में साख्यशास्त्र में प्रकृति को विभु माना है, पर वहाँ यह व्यवस्था समझनी चाहिये कि प्रकृति सापेक्ष विभु है अर्थात् अन्य कार्यों की अपेक्षा विभु है। वास्तव में इयत्तारहित विभु एकमात्र परमात्मा ही है, कोई अन्य वस्तु नहीं ॥४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (मृष्टाः) भास्वराः (अमर्त्याः) नक्षत्रगणाः (पथः रजः) रजोगुणेन मार्गं (इयक्षन्तः) प्राप्तुमिच्छन्तः (ससृवांसः) अत्यन्तसरणशीलाः (न शश्रमुः) विश्रामं न लभन्ते ॥४॥